Saturday, June 5, 2010

कभी कभी...

कभी कभी मेरे दिल मैं ख्याल आता हैं

कि ज़िंदगी तेरी जुल्फों कि नर्म छांव मैं गुजरने पाती

तो शादाब हो भी सकती थी।

यह रंज-ओ-ग़म कि सियाही जो दिल पे छाई हैं

तेरी नज़र कि शुओं मैं खो भी सकती थी।

मगर यह हो न सका और अब ये आलम हैं

कि तू नहीं, तेरा ग़म तेरी जुस्तजू भी नहीं।

गुज़र रही हैं कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे,

इससे किसी के सहारे कि आरझु भी नहीं.

न कोई राह, न मंजिल, न रौशनी का सुराग

भटक रहीं है अंधेरों मैं ज़िंदगी मेरी.

इन्ही अंधेरों मैं रह जाऊँगा कभी खो कर

मैं जानता हूँ मेरी हम-नफस, मगर यूंही

कभी कभी मेरे दिल मैं ख्याल आता है.

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You see things; and you say, "Why?" But I dream things that never were; and I say, "Why not?"